★तमसो मां ज्योतिर्गमय 'एक साधक की आत्मकथा '
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आलेख :---
महर्षि ' श्रद्धानंद ' - मो० 7739976232,7857937020(व्हाट्सएप)
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शैशवकाल की स्मृतियाँ भाग (10-11)
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बस्तर के घने जंगलों में रहने वाले भोले भाले, सीधे साधे थे। वे गोंड कबीले के आदिवासी थे। उनसे ज्यादा घुलना मिलना तो एक 6-7 वर्ष के बच्चे के लिए मुश्किल था अतः उनके विषय में ज्यादा कुछ नहीं लिख पाउँगा।
बाजार में वे लोग साग सब्जी तौल कर तब नहीं बेचते थे।छोटी छोटी ढेरियां बना एक आने, दो आने में बेचते थे। पहले चार पाई का एक आना होता था, बाद में 6 पैसे का एक आना माना जाने लगा, एक रूपये में 16 आने होते थे।
इसी कारण आज भी 25 पैसे के सिक्के को चवन्नी और पचास पैसे के सिक्के को अठन्नी कहने का चलन आज भी है।
वहाँ भी मेरे बचपन के दो दोस्त बन गए एक लड़की जिसका नाम किरण था वो मराठी थी मेरे पड़ोस में रहती थी, दूसरा एक लड़का राजू। राजू के यहाँ मैं कैरम खेलता था किरण के साथ खिलौनों से खेलता था।
किरण बहुत अच्छा नृत्य करती थी। एक बार वहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रम में मेरा और किरण का भी एक कार्यक्रम रखा गया।
मेरी भूमिका एक छूटी हुई नौकरी वाले बेरोजगार पति की थी और किरण की भूमिका एक फैशनेबल, नाजुक मिजाज, शौक़ीन पत्नी की थी।
स्टेज पर वो मेरे चारों ओर नृत्य करते हुए कहती थी:--
" सुनलो बाबूजी बात मेरी मान,
पैदल चलना मुझे नहीं आता,
दो-दो मोटर करो तैयार,
मैं आई घर में फैशन दार। "
इस पर मेरा जवाब होता था :--
" छुट गयी नौकरी मिले ना पगार,
कहाँ से लाऊँ तुझे मोटर कार ?"
इसी तरह से उसकी फरमाइशें बढ़ती जातीं और मेरा उत्तर भी इसी तरह बदलता रहता। लोगों ने उसे बड़ा पसंद किया।
मेरे जीजाजी ने भी उसमें एक नाटक में भाग लिया था।
जीजाजी व दीदी उस जमाने में और उस जंगल में भी फ़िल्म देखने के शौक़ीन थे।
कांकेर शहर (छत्तीसगढ़) वहाँ से 30 किमी दूर था। घना जंगल, आवागमन के साधन न थे, और रास्ते में तीन चार पहाड़ी नदियाँ भी पड़ती थीं फिर भी महीने में एक आध बार कांकेर में फ़िल्म देखने का कार्यक्रम बन जाता था।
विभाग का ओपन बॉडी ट्रक था ।ड्राईवर केबिन में हम लोग बैठ जाते, पीछे कुछ लेबर(मजदूर) बैठ जाते और हम दोपहर में निकल पड़ते थे।
रात में लौटते समय मैं सो जाता था। रास्ते में कभी कहीं बाघ, चीता, भालू, हिरन सामने ट्रक की रौशनी में चमकते दिखाई देते तो दीदी ,जीजाजी मुझे जगा कर उन्हें दिखाते।
एक बार तो शायद 1961 में हम वहाँ से 200 किमी दूर रायपुर इसी प्रकार फ़िल्म देखने पहुँचे।
वो फिल्में थोड़ी थोड़ी याद हैं।
एक फ़िल्म थी ' गंगा जमुना ' जिसमें दिलीप कुमार और वैजयंती माला थी। और दूसरी फ़िल्म सम्पूर्ण रामायण थी। पहली फ़िल्म 6से 9 तथा दूसरी 9 से 12 देखकर होटल में रुके थे तथा अगले दिन वापस लौटे।
गंगा जमुना फ़िल्म में दिलीप कुमार का डायलाग ' मुड़िया काट के तलैया में फेंक देबें ' और वैजयंती माला का गाया एक गीत आज भी याद है ' ढूंढो ढूंढो रे साजना ढूंढो, रे साजना मेरे कान का बाला ।'
सम्पूर्ण रामायण में राम के अश्वमेध यज्ञ में लव कुश द्वारा गाया गया गीत ' हे राम तुम्हारी रामायण, तब तक होगी सम्पूर्ण नहीं,
भारत की सीताओं के दुखड़े जब तक होंगे दूर नहीं।'
और फ़िल्म के अंत में सीता का धरती की गोद में समा जाना आज भी याद है।
उस शिशु अवस्था में फिल्मों का मेरे कोमल मन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
फ़िल्मी गीतों ने मुझे गायक बना दिया, उस जमाने में इंडियन आइडल या z टीवी के सा रे गा मा पा जैसे कार्यक्रम कहाँ होते थे नहीं तो मैं टॉप टेन में जरूर पहुँचता।
फिल्मों के मार्मिक दृश्यों को देखते हुए आँखें आंसुओं से लबालब भर जाती थीं। चाहे फ़िल्म हो, उपन्यास हो या फिर गीत हों मुझे सब में डूब जाने की आदत थी।
अंतर्मन की गहराई से उस दर्द या संवेदना को शिद्दत से महसूस करने लगता था लगता था कि वह सब जैसे मेरे साथ ही घटित हो रहा है।
मेरे संवेदनशील हृदय के विकास के पीछे इन सब का बड़ा हाथ रहा है।
व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण वह परमात्म सत्ता उसी प्रकार धैर्य पूर्वक करती है जैसे कोई कुशल मूर्तिकार धीरे धीरे ,बड़ी सावधानी से किसी सुंदर मूर्ति का निर्माण करता है। नियति भी मुझे भविष्य के लिए इसी प्रकार तराशने में लगी थी।और मैं नियति के प्रवाह में बहता चला जा रहा था।
बस्तर के घने जंगल की एक दो स्मृतियों के बाद आगे की यात्रा पर चलेंगे।
दुधावा प्रोजेक्ट में महानदी पर बन रहे विशाल बाँध पर मिटटी गिराने के लिए बड़े बड़े विशाल ट्रैक्टर थे। जिनके पीछे लगभग 10×10×10 का एक कमरा सा होता था। उसके निचले हिस्से में ब्लेड जैसा था जिससे दबाने से मिटटी कटकर उसमें भरती चली जाती थी। पूरा भर जाने पर ,सामने की दीवाल ढक्कन की तरह बंद हो जाती थी। बाँध पर जाकर ढक्कन धीरे धीरे खुलता जाता था और मिटटी की परत बांध पर पड़ती जाती थी।
एक बार कॉलोनी से हम कुछ बच्चे और महिलाएं, बांध पर घूमने गए।
घूमते घूमते शाम हो गयी। पास में ही जंगल था। जंगली जानवरों का खतरा था।
बाँध पर ट्रैक्टर मिटटी गिराने का काम कर रहे थे। एक परिचित इंजीनियर ने ट्रेक्टर चालक को हम सभी कॉलोनी छोड़ आने को कहा। हम सब बच्चे, महिलाएं उस ट्रैक्टर की कमरे नुमा ट्रॉली में घुस गए, आगे से ढक्कन बंद होगया। केवल ऊपर खुला आसमान दिख रहा था। लग रहा था जैसे हम लोग किसी पहाड़ की बड़ी गुफा में घुस गए हों। थोड़ी ही देर में कॉलोनी पहुँच कर, ढक्कन खुला और हम सब बाहर आ गए।
लगभग डेढ़--दो वर्ष अत्यंत मनोरम, उन्मुक्त, प्राकृतिक वातावरण में कब कैसे बीत गए पता ही नहीं चला।
जीजा जी ने फिर छुट्टी ले ली और मेरी गोरखपुर में माँ पिताजी के पास वापसी यात्रा शुरू हो गयी।
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गोरखपुर पहुँचने के बाद पता चला कि पिताजी का स्थानांतरण गोरखपुर से आगरा मेन्टल हॉस्पिटल (मानसिक चिकित्सालय, पागल खाना) में हो गया था।
पागलखाना सुनकर आप चौंक गए होंगे। जी मैं सच कह रहा हूँ। मेरे जीवन के बहुमूल्य दस वर्ष आगरा के पागल खाने में, पागलों के साथ हँसते खेलते भी गुजरे हैं।
न न न न , आप जैसा सोच रहे हैं वैसा पागल बन कर नहीं , बल्कि पिताजी वहाँ एक चिकित्सक के रूप में पदस्थापित थे, इसलिए।
यकीन मानिये ये बाहर की दुनियाँ में सही माने जाने वाले लोग, उन सचमुच के पागलों से कहीं ज्यादा खतरनाक और खूंखार होते हैं।
ये करोड़ों, अरबों के भ्रष्टाचारी, देश लूटने और बेचने वाले, ये हत्यारे, बलात्कारी, ये निर्दोष जनता का खून बहाने वाले आतंकवादी, आत्मघाती हमलावर, ये कसाब, याकूब मेमन।
ये सत्ता के लालच में अपना धर्म, ईमान, देश को भी बेच देनेवाले ,आतंकियों को अपना बाप, भाई, बहन, बेटी बतानेवाले तथाकथित सेकुलर राजनेता, ये प्रेस्टीट्यूट मीडिया, ये उन पागलों से कई गुना खतरनाक हैं भाई।
खैर वर्ष 1962 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ऐतिहासिक धरती, ब्रज भूमि, आगरा में रहने का अवसर मिला। मेरी किशोर उम्र के बहुमूल्य पल, व्यक्तित्व के गढ़ने, विकसित होने के दिन, अविस्मरणीय हैं।
अब अगले संदेशों में शैशव काल से आगे, किशोर जीवन की अनुभूतियों पर चर्चा करेंगे।आप सभी आत्मीय मित्रों को मेरी एक साधक की आत्म कथा, पसंद आ रही है यह मेरे लिए अत्यंत हर्ष और संतोष का विषय है। इसके लिए आप सभी का हृदय से आभार।
क्रमशः
प्रस्तुति:--
ओंकार नाथ शर्मा 'श्रद्धानंद '
संस्थापक,संचालक--
गायत्री शक्तिपीठ शान्तिधाम
श्री सत्य सनातन धर्म परिवार
छपरा, बिहार
मो० 7739976232
